अन्तराष्ट्रीय

फिलिस्तीन की शीरीन की हत्या : निशाने पर निर्भीक पत्रकारिता

अल जज़ीरा की वरिष्ठ और जानी-मानी पत्रकार शिरीन अबू अक्लेह को गोली मार दी गयी।

AINS DESK…11 मई को फिलिस्तीन के जेनिन शहर में इजरायली फौजों द्वारा की जा रही जबरिया बेदखली को कवर कर रहीं अल जज़ीरा की वरिष्ठ और जानी-मानी पत्रकार शिरीन अबू अक्लेह को गोली मार दी गयी। 51 वर्षीय इस महिला पत्रकार की जैकेट पर दोनों तरफ बड़े बड़े शब्दों में प्रेस लिखा हुआ था। इसके बाद भी उन्हें सिर में गोली मारी गयी। उनके साथी अल क़ुद्स के संवाददाता अली समोदी को पीछे से गोली मारी गयी – वे गंभीर हालत में हैं। शिरीन पहली पत्रकार नहीं हैं, जिन्हें अमरीकी साम्राज्यवाद की मदद और शह पर आतंक मचा रही यहूदीवादी इजराइली फौजों ने मार डाला है। वर्ष 1967 से लेकर अब तक 86 फिलिस्तीन पत्रकारों को मारा जा चुका है। एक अन्य स्रोत के अनुसार अकेले वर्ष 2000 के बाद 50 पत्रकार मारे जा चुके हैं। इनके अलावा वर्ष 2018 से शुरू हुए प्रतिरोध के साप्ताहिक प्रदर्शनों में 144 पत्रकारों को इजराइली फौजों ने रबर बुलेट्स, पथराव और आंसू गैस का निशाना बनाया है। ध्यान रहे कि इजरायल दुनिया के सबसे दुष्ट देशों – रोग स्टेट्स – में आता है। अपनी इन्हीं आपराधिक करतूतों की वजह से संयुक्त राष्ट्र संघ में एकदम अलग थलग है – लेकिन अमरीकी सैयां भये कोतवाल, तो फिर डर काहे का!!

दूसरी खबर इसी सप्ताह पत्रकारिता के लिए दिए जाने वाले सम्मान – पुलित्ज़र पुरुस्कारो – के एलान की है। इसमें भारतीय फोटो पत्रकार दानिश सिद्दीकी सहित चार भारतीय पत्रकारों अदनान आबिदी, सना इरशाद मट्टू और अनिल दवे के नाम हैं। इनमें दानिश सिद्दीकी को यह दूसरी बार मिला है। उन्हें और बाकी तीन भारतीय पत्रकारों को यह सम्मान कोविड की महामारी के साहसी और खोजी कवरेज और सरकार जिन्हें छुपाना चाहती थीं, उन मौतों और मजदूरों के पलायन के दस्तावेजीकरण के लिए मिला है। ये वे ही युवा दानिश हैं, जिन्हें पिछली साल 16 जुलाई को अफगानिस्तान में तालिबानियों ने मार डाला था। इन सहित 1992 से 2022 के बीच तीस सालों में तालिबानियों ने 55 पत्रकारों की हत्या की। मतलब यह कि हर तरह का कट्टरपंथ, हर झंडे के राजनीतिक गुंडे और तानाशाह स्वतंत्र प्रेस और खोजी पत्रकारों से डरते हैं।

भारत इसका अपवाद नहीं है। मई 2019 से अगस्त 2021 के बीच भारत में 228 पत्रकारों पर 256 बार हमले हुए। हाल के दिनों को ही देखें, तो भाजपा शासित प्रदेश योगी के उत्तरप्रदेश में इन हमलों की अगुआई खुद सरकार ने की। मिर्जापुर के स्कूलों में मध्यान्ह भोजन में नमक और रोटी दिए जाने की सच्ची खबर छापने वाले पत्रकार पवन जायसवाल पर अनेक झूठे मुकदमे लाद दिए गए। अभी हाल ही में इन पवन जायसवाल का निधन हुआ है। बाराबंकी में गैरकानूनी वैक्सीन लगाने की खबर एक्सपोज करने गए पत्रकारों को बुरी तरह पिटवाया गया। पंचायत चुनाव के दौरान योगी सरकार की धांधलियों को उजागर होने से रोकने के लिए उन्नाव में एक आईएएस अफसर ने पत्रकार को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। हाल ही में उत्तर प्रदेश के बलिया में जब परीक्षा का पेपर लीक हो गया, तो लीक होने की खबर लिखने वाले पत्रकार को ही पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया।

पत्रकारों की सुरक्षा की देखरेख के लिए बनी अंतर्राष्ट्रीय संस्था – कमेटी फॉर प्रोटेक्शन ऑफ़ जर्नलिस्ट्स (सीपीजे) – की रिपोर्ट के अनुसार पत्रकारिता का काम करते हुए प्रतिशोध में मारे जाने वाले पत्रकारों के मामले में भारत दुनिया में सबसे ऊपर है। यहां 2021 की साल में 1 दिसंबर तक 4 पत्रकारों की हत्या कर दी गयी। पांचवां मौके पर खबर का कवरेज करते हुए मारा गया। भारत में आरएसएस की अगुआई वाली हिंदुत्ववादी साम्प्रदायिकता की बढ़त और मोदी की अगुआई में कारपोरेट निज़ाम के लिए लोकतंत्र सिकोड़ने का दोहरा काम शुरू हुआ – इस बीच पत्रकारों और गोदी में न बैठने वाले मीडिया पर हमले लगातार तेज होते-होते 2022 में सबसे अधिक रिकॉर्ड तोड़ ऊंचाई पर पहुँच गए। 1992 से 2022 के बीच 58 पत्रकार मारे गए हैं। ध्यान दें, यह संख्या इसी अवधि में तालिबानी अफगानिस्तान में मारे गए पत्रकारों की संख्या से ज्यादा है। तालिबानियों के हिन्दुस्तानी संस्करण खुद इन हमलों की अगुआई करते हैं : मशहूर पत्रकार गौरी लंकेश की 2017 में हुई हत्या के पीछे यही लोग थे। इसी दौरान प्रति वर्ष 7 के हिसाब से पत्रकार जेलों में भी डाले गए हैं।

जम्मू-कश्मीर आमतौर से पत्रकारों के लिए असुविधाजनक रहा है। वे सीमापार आतंक और सेना तथा पुलिस चक्की के दोनों पाटों के बीच पिसते रहे हैं। 5 अगस्त 2019 को जम्मू-कश्मीर प्रदेश के अस्तित्व को समाप्त किये जाने और धारा 370 के खत्म किये जाने के बाद तो कश्मीर जैसे दोजख में ही तब्दील हो गया है। श्रीनगर का ऐतिहासिक कश्मीर प्रेस क्लब बंद कर दिया गया है। अखबार और दुसरे मीडिया को पहले उनके सरकारी विज्ञापन और फिर निजी विज्ञापन बंद करके आर्थिक रूप से तोड़ा गया, उसके साथ उनके वितरण और प्रसारण में बाधाएं खड़ी करके कमर ही तोड़ दी गयी। इसके बाद भी जब निर्भीक पत्रकार चुप नहीं बैठे, तो उन्हें सताने और डराने के सीधे दमनात्मक तरीके अपनाये गए। तीन पत्रकारों – फहद शाह, सज्जाद गुल और आसिफ सुलतान – को जबरिया यूएपीए के निर्मम क़ानून में पकड़ कर जेल भेज दिया गया। बड़ी अदालतों के हस्तक्षेप से जब वे यूएपीए से रिहा हुए, तो जेल के दरवाजे पर ही फिर से पब्लिक सेफ्टी एक्ट में धर लिए गए। उनके साथ अंतर्राष्ट्रीय मीडिया संस्थानों के दो और पत्रकार अभी भी जेल में हैं। इनके अलावा 22 प्रमुख पत्रकार ऐसे हैं, जिन्हे “नो फ्लाई लिस्ट” में डालकर उनका आवागमन प्रतिबंधित कर दिया गया है।

मोदी सरकार और इसके वैचारिक कुनबे की खासियत यह है कि वह एक तरफ हिटलर और मुसोलिनी को अपना आदर्श और परमगुरु मानती है, तो दूसरी तरफ यहूदीवादी इजराइल के बर्बरों को कुम्भ के मेले में बिछड़ा अपना उस्ताद समझती है। उनसे नए-नए धतकरम ही नहीं सीखती – उन्हें अंजाम देने के लिए कुख्यात मोसाद को अपना कोच भी बनाती है और नए-नए औजार भी इजराइल से ही लेकर आती है। पेगासस जासूसी उपकरण ऐसा ही उपकरण और तकनीक थी, जिसका इस्तेमाल बाकियों के खिलाफ करने के साथ-साथ देश के 40 नामी पत्रकारों पर भी किया गया। इतने भर से भी जब दहशत नहीं फैलती, तो सुल्ली डील्स और बुल्ली बाई एप्प जैसे दुष्ट तरीके निकाले जाते हैं। बुल्ली बाई एप्प के जरिये सामाजिक रूप से सक्रिय जिन 100 मुस्लिम महिलाओं को निशाना बनाया गया था, उनमें 20 पत्रकार भी थीं। बदले की भावना इस कदर है कि वाशिंगटन पोस्ट की नियमित स्तम्भकार होने के बावजूद राणा अय्यूब को भी नहीं बख्शा जाता, क्योंकि उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों की असलियत उधेड़ कर रख दी थी और दुनिया भर के सामने मोदी और आरएसएस की भूमिका सामने ला दी थी। अपने हो गिरोह के लोगों से कराई गयी फर्जी शिकायतों के आधार पर राणा अय्यूब के देश छोड़ने पर रोक लगा दी गयी है।

इस सबके चलते स्थिति यहां तक आ पहुंची है कि “रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स” नाम के पत्रकारों के वैश्विक संगठन के अनुसार विश्व प्रेस स्वतन्त्रता सूचकांक (वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स) में भारत खिसकते-खिसकते 150 वे नंबर पर आ गया है। कुल 180 देशों में प्रेस की आजादी की दशा पर तैयार की जाने वाली इस रिपोर्ट में भारत की यह फिसलन लगातार जारी है – पिछली साल यह 142वें स्थान पर था। जनता के बीच में गोदी मीडिया के नाम से ख्याति इसी का परिणाम है।

सभ्य समाज में निर्भीक और स्वतंत्र पत्रकारिता एक रोशनी का काम करती है। विवेक को संवारती है, विश्लेषण की क्षमता को निखारती है। अँधेरे के सौदागरों को रोशनी बुरी लगती है — इसीलिये उन्हें न खोजी पत्रकार चाहिए, न नियंत्रणो और भय से मुक्त मीडिया चाहिए। भारत में इन सौदागरों की एक ही दूकान के दो आउटलेट्स हैं : एक पर कारपोरेट के धनपिशाच बैठे हैं, दूसरे पर त्रिपुण्ड त्रिशूल धारे वंचक भगत बैठे हैं। इसीलिए भारतीय पत्रकारों पर हमले भी दो-आयामी हैं। इधर कारपोरेट उन्हें ठोकता है, उधर बुराड़ी में हुयी हिन्दू महापंचायत में पत्रकारों और मीडियकर्मियों के नामों से उनका धर्म पहचानने वाले साम्प्रदायिक ठग उन्हें रगेदते हैं। त्रिपुरा में इन्होंने सरकार में आते ही सबसे पहले वहां की जनता के लोकप्रिय वामपंथ समर्थक अखबार ‘देशेर कथा’ को निशाने पर लिया। पहले उसका रजिस्ट्रेशन रद्द किया, जब हाईकोर्ट ने उसे बहाल कर दिया, तो उसके बाद उसके प्रदेश भर में सर्कुलेशन में हर तरह की बाधाएं खड़ी कीं। बंगाल में इन्हीं की सहोदर जैसी ममता बनर्जी ने भी वहां के लोकप्रिय अखबार ‘गणशक्ति’ को निशाने पर लिया था।

चिंता की बात यह नहीं है कि हर तरह के लोकतांत्रिक स्पेस को संकुचित करने वाली ताकतें मीडिया और पत्रकारों पर अपने हमले दिनों-दिन तीखे कर रही हैं। अफ़सोस की बात यह है कि ठीक इस दौर में मीडिया और खासतौर से श्रमजीवी पत्रकारों के संगठन विभाजित और निष्क्रिय हुए पड़े हैं। प्रेस का मुंह बंद किये जाने की सत्ता की कोशिशों के खिलाफ भारतीय पत्रकारिता लड़ाई के अग्रिम मोर्चे पर रही है। ब्रिटिश राज को चलाने के लिए अगर अंग्रेज 1910 में इंडियन प्रेस एक्ट और उससे पहले सेंसरशिप ऑफ़ प्रेस एक्ट लेकर आये, तो 1857 से लेकर 1947 के 90 सालों में भारत के उस समय के तुलनात्मक रूप से युवा मीडिया और उसके पत्रकारों ने भी प्रतिरोध का मोर्चा कमजोर नहीं पड़ने दिया। बाल गंगाधर तिलक, सुब्रमण्यम अय्यर, स्वदेशाभिमानी रामकृष्ण पिल्लई से लेकर गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे अनेक दिग्गजों ने प्रेस की आजादी के लिए मोर्चा लिया। सत्तर के दशक में लगी इमरजेंसी के समय थोपी सेंसरशिप से भी देश के पत्रकार – हिंदी, अंगरेजी और सभी राष्ट्रीय भाषाओं के पत्रकार – जम कर जूझे थे। 1977 की इंदिरा गांधी की पराजय में प्रेस स्वतन्त्रता के संघर्ष की भी एक अहम् भूमिका रही थी। मौजूदा दौर में भी श्रमजीवी पत्रकार मोर्चे पर डटे हैं, मगर उनके संगठनो की सक्रियता उतनी नहीं है। यह एक विचलन है, जिसे आने वाला समय दुरुस्त करेगा।

क्योंकि इतिहास ने इस तरह के हालात पहले भी देखे हैं, इतिहास में उनसे उबरने के सबक भी दर्ज हैं। समय उन्हें अमल में लाने का है। लोकतंत्र की पहली शर्त प्रेस की स्वतंत्रता की रोशनी को फिलिस्तीन से काबुल होते हुए भारत तक बचाने का है।

(लेखक ‘लोकजतन’ के संपादक और अ. भा. किसान सभा के संयुक्त सचिव हैं।)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button